Saturday 23 July 2011

सुन्दरता की देवी


सुन्दरता की देवी
तन सुन्दर है, मन सुन्दर है
तुम सुन्दरता की देवी हो,
मदमस्त तुम्हारी नजरें हैं
मदहोश हमें कर देती हो ।

है नूर टपकता चेहरे से
जुल्फों की शान निराली है,
मदमाता यौवन है तेरा
यौवन की शान निराली है ।

वाणी में है माधुर्य तेरे
तुम सुन्दर स्वर में गाती हो,
स्वर लहरी तेरी सुन्दर है,
मदहोश हमें कर जाती हो ।

है नशा तुम्हारी आंखों में
और होंठ छलकते प्याले है,
सुन्दर तेरी गोरी काया
और बाल घनेरे काले हैं ।

मुस्कान तुम्हारी खिली कली
और हंसो तो जैसे फूल झडे,
नागिन सी चाल तुम्हारी है
बिजली जैसे आंखों से गिरे ।

यौवन से दमकता चेहरा है,
गहना भी तेरा यौवन है;
शृंगार तुम्हारा क्या होगा ?
शृंगार तुम्हारा यौवन है ।

स्वभाव तेरा अति सुंदर है,
व्यवहार तुम्हारा सुंदर है,
सबसे घुल – मिल जाती हो तुम
व्यक्तित्व तुम्हारा सुंदर है ।

प्यार, दया, करूणा, वात्सल्य
धारण सब दिल मे करती हो,
निर्भीक हो तुम व्यवहार कुशल
तुम प्रेम सुधा बरसाती हो ।

आदर्शों के विपरीत कभी
तुम बात किसी की नहीं मानी,
हर मुश्किल से तुम टकरायी
जीवन में हार नहीं मानी ।

भयभीत कभी तू न होती हो,
तुम साहस की प्रतिमुर्ति हो,
बिजली – सी चमकती आंखें हैं
तुम मुझको राह दिखाती हो ।

है कोमल अंग भले तेरा
तू शक्ति की अवतारी है,
तु नहीं किसी से कभी डरी
हर मुश्किल तुमसे हारी है ।

तुम नये विचारों की मलिका
आदर्श पुराने हैं तेरे,
परिधान तुम्हारे नये मगर
संस्कार पुराने हैं तेरे ।

प्राचीन नवीन का संगम तुम
ईश्वर की अद्भुत रचना हो,
सोते और जागते मैं देखूं
तुम इतना सुंदर सपना हो ।

इस नये जमाने की शिक्षा
कालेज में जाकर तुम पायी,
पर, आदर्श पुराने भारत का
हो सदा निभाती तुम आई ।

तुम खुले विचारों की मलिका
तुम पर्दे से बाहर आई,
पाखंड नहीं कोई तेरे अंदर
ना तुम ढोंग निभा पाई ।

पर्दा जो मुगलों ने थोपा
उस पर्दे को तुम छोड चली,
मध्य युगों के रीति – रिवाज
और हर बंधन तुम तोड चली ।

मर्दों के पैरों की जूती
बनना तुमको स्वीकार नहीं,
और स्वाभिमान पर ठेस कभी
सहना तुमको स्वीकार नहीं ।

नारी है नर से हीन नहीं
और नर नारी से हीन नहीं,
तुम मानती हो यह सदा
कोई किसी से कम नहीं ।

है भूमिका दोनों की अलग
दोनों मे आग बराबर है,
जीवन रथ के दो पहिये हैं
दोनों पर भार बराबर है ।

सरस्वती लक्ष्मी स्वरूपा
शक्ति का अवतार हो तुम,
भारत का एक पुरूष हूं मैं
और भारत की एक नारी तुम ।

सम्मान तुम्हारा मैं करता
सम्मान हमारा तुम करती,
दोनों हैं पूरक एक दूजे के
बात सदा यह तुम कहती ।

अभिमान नहीं तुझमें है जरा
पर स्वाभिमान की मूर्ति तुम,
निज स्वार्थ के अंधे जो भी कहें
एक नारी का आदर्श हो तुम ।
n     कृष्ण बल्लभ शर्मा “योगीराज”
(“इतिहास रचयिता” नामक पुस्तक से उद्धृत)

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