Sunday 24 July 2011

कृष्णा फाउंडेशन के संस्थापक द्वारा रचित हिंदी कवितायें


इक्कीस अध्याय में इक्कीसवीं शताब्दी की गीता
         के रूप में ख्यातिप्राप्त
कृष्ण बल्लभ शर्मा "योगीराज" द्वारा लिखित
               तथा
कृष्णा फाउंडेशन द्वारा प्रकाशित सुप्रसिद्ध पुस्तक 

इतिहास रचयिता

संपूर्ण विश्व के सभी धर्मग्रंथों की सार - प्रस्तुति तथा 
जीवन दर्शन के समस्त सिद्धांतों की सरल व्याख्या सहित
जीवनी शक्ति से भरपूर, ओजपूर्ण, प्रवाहमय, उत्साहवर्धक एवं 
प्रेरणादायक इक्कीस कविताओं एवं गीतों का अनूठा संकलन


इतिहास रचयिता
विध्नों से नहीं घबराते हैं,
कष्टों में भी मुस्काते हैं,
इतिहास रचयिता जो होते
काँटों में राह बनाते हैं ।

कोई काम नहीं ऐसा जग में,
जो वीर नहीं कर सकते हैं,
जो ठान लिया सो ठान लिया,
पूरा कर के ही रुकते हैं ।

साथ किसी का मिले न मिले,
खुद आगे बढते जाते हैं,
तकदीर की बातें करते नहीं,
कर्मों पे भरोसा करते हैं ।

अवसर की प्रतीक्षा करते नहीं,
अवसर वे पैदा करते हैं,
प्रतिकूल समय की परवा (ह) नहीं,
प्रतिकूल हवा में बढते हैं ।

कुछ लोग खफा उनसे रहते,
जिनका है स्वार्थ नहीं सधता,
पर जीता जो जग की खातिर,
खुश एक को कैसे कर सकता ?

हो सकता जितना उनसे,
कर्त्तव्य निभाते जाते हैं,
सबकी खातिर वे जीते हैं,
वे सब पर प्यार लुटाते हैं ।

दूसरों की नहीं वे नकल करते,
इतिहास नही दोहराते हैं,
इतिहास नया वे रचते हैं,
इतिहास पुरूष कह्लाते हैं ।
n  कृष्ण बल्लभ शर्मा “योगीराज”
(“इतिहास रचयिता” नामक पुस्तक से उद्धृत)

जय भारत जय भारती
(राष्ट्र- स्तूति गान)
जय भारत जय भारती, जय भारत जय भारती ।
पुण्य भूमि यह भारत की, है सारी सृष्टी पुकारती,
जय भारत जय भारती, जय भारत जय भारती ।

ज्ञान और विज्ञान की जननी, धर्मभूमि यह कर्मभूमि है,
पर्वतराज हिमालय को सारी दुनिया है निहारती,
जय भारत जय भारती, जय भारत जय भारती ।

खान, खनिज, जंगल, उपवन, ऊँचे पर्वत और हिमशिखर,
हैं हरे भरे मैदान, यहाँ पर प्रकृति हर सम्पदा है वारती,
जय भारत जय भारती, जय भारत जय भारती ।

गंगा, यमुना, सिन्धु नदी और ब्रह्मपुत्र, कृष्णा, कावेरी,
नदियां सारी मिलकर के भारत भूमि को संवारती,
जय भारत जय भारती, जय भारत जय भारती ।

कश्मीर से कन्याकुमारी, असम से गुजरात की धरती हमारी,
विन्ध्य, हिमाचल, आन्ध्र, तमिल, बंगाल की भूमि रही सदा है पुकारती,
जय भारत जय भारती, जय भारत जय भारती ।

पंजाब, मगध, मेवाड, मराठा, मिथिला, काशी, पाटलीपुत्रा,
ब्राह्मण क्षत्रिय वीरों की और वैश्य शूद्र की पावन भूमि पुकारती,
जय भारत जय भारती, जय भारत जय भारती ।

वीरों की और ऋषि मुनियों की जननी है, यह कर्मभूमि है,
जय जवान, जय किसान और जय विज्ञान – जनता सदा है पुकारती,
जय भारत जय भारती, जय भारत जय भारती ।

यहाँ ईश्वर पूजा की पद्धति, परिधान और रीति रिवाज अलग,
पर बाल- वृद्ध नर- नारी सारे, युवावर्ग की टोली सदा पुकारती,
जय भारत जय भारती, जय भारत जय भारती ।
n     कृष्ण बल्लभ शर्मा “योगीराज”
(“इतिहास रचयिता” नामक पुस्तक से उद्धृत)

वतन के नौजवान जाग
जाग, जाग, जाग, वतन के नौजवान जाग,
सुन के मातृभूमि की पुकार अब तू जाग,
जाग, जाग, जाग, वतन के नौजवान जाग ।

मातृभूमि है पुकारती, वतन तुझे पुकारता,
पुकारती है ये जमीं, है आसमां पुकारता,
सो चुके बहुत हो तुम, बहुत नशे में रह चुके,
व्यर्थ की ही बात में समय बहुत गँवा चुके,
अपनी जिम्मेवारियों से अब न भाग,
जाग, जाग, जाग, वतन के नौजवान जाग ।

शक्ति का तू पुंज है, शान्ति का तु दूत बन,
मौत को शिकस्त दे, तु बाँध के सर पे कफन,
आगे बढ ओ नौजवाँ, संभाल तू अपना वतन,
बर्बाद न कोई करने पाये, तेरा ये प्यारा चमन,
तेरा वतन तुझे रहा पुकार जाग,
जाग, जाग, जाग, वतन के नौजवान जाग ।

जाति, पंथ, संप्रदाय, भाषा, वर्ग, लिंग के,
नाम पर खडी दीवार को तू तोड दे,
आपस में बाँटती है जो, एक- दूसरे से काटती है जो,
उस फूटैली फूट का सिर फोड दे,
हिमालय से आ रही पुकार जाग,
जाग, जाग, जाग, वतन के नौजवान जाग ।

इरादे हों अटल तेरे, बुलंद हो (अ)गर हौसला,
फिर तो तेरे कदमों मे मिटेगा हर एक फैसला,
आपस की फूट मिटा के तू, जो साथ- साथ चल चले,
हिम्मत तू कर जो बढ चले, न टिक सकेंगी मुश्किलें,
हे वीर आर्यपुत्र ! तुम मुश्किलों से अब न भाग,
जाग, जाग, जाग, वतन के नौजवान जाग ।
n     कृष्ण बल्लभ शर्मा “योगीराज”
(“इतिहास रचयिता” नामक पुस्तक से उद्धृत)

नये समय के नये तराने
नवयुग के हम नये तराने,
नये हृदय की बात करेंगे,
नवयुग के इस महाचरण मे
नवजीवन का प्राण भरेंगे ।

रक्त नया है, जोश नया है,
गीत नया हम गायेंगे,
साज नया, अंदाज नया,
अब राग नया हम गायेंगे ।

हम नूतनता के निर्भय पंथी,
धारा के प्रतिकूल चलेंगे,
जीर्ण जगत की शीर्ण शिरा को,
नये रक्त का परिचय देंगे ।

पर्वत को रस्ता देना होगा,
कदम हमारे जहां पडेंगे,
सागर को रस्ता देना होगा,
सागर को हम चीर बढेंगे ।

नये समय की नयी वायु में,
आज नया एक आवाहन है,
नयी सांस मधुबन को देने,
आया दल फिर एक नूतन है ।
मधुबन में कलियां नयी – नयी,
नित फूल नये खिलते जाते,
नव वसंत की वेला में,
कोकिल भी नवगायन गाते ।

नवयुग के पर्दे पर आज,
नये रक्त का रंग भरेंगे,
नवीनता के हम अभियानी,
नयी राहों पर आज चलेंगे ।
n     कृष्ण बल्लभ शर्मा “योगीराज”
(“इतिहास रचयिता” नामक पुस्तक से उद्धृत)

जिंदगी ऐसे जियो
जिंदगी को तुम अपने कुछ इस तरह जियो,
कि अपनी जिंदगी कैसे जिये – इस बात का,
फिर कभी, कोई पछतावा न हो ।

हर बात अपनी जिंदगी मे इस तरह बोला करो,
कि कोई बात कैसे, कब, कहां, क्या बोल गये – इस बात का,
फिर कभी, कोई पछतावा न हो ।

हर काम अपनी जिंदगी में इस तरह किया करो,
कि कोई काम कैसे, कब, कहां, क्यों कर गये – इस बात का,
फिर कभी, कोई पछतावा न हो ।

इस्तेमाल अपनी जिंदगी के वक्त का ऐसे करो,
कि कौन वक्त हो गया बेकार क्यों – इस बात का,
फिर कभी, कोई पछतावा न हो ।

हर किसी से जिंदगी में बर्ताव तुम ऐसे करो,
कि बर्ताव किससे, कब, कहां, कैसे किये – इस बात का,
फिर कभी, कोई पछतावा न हो ।

जिंदगी में हर किसी से इस तरह तुम मिला करो,
कि कब, कहां और किससे तुम कैसे मिले – इस बात का,
फिर कभी, कोई पछतावा न हो ।
n     कृष्ण बल्लभ शर्मा “योगीराज”
(“इतिहास रचयिता” नामक पुस्तक से उद्धृत)

धर्म सम्प्रदाय रेलीजन और मजहब
ईश्वर कहें, अल्लाह कहें, गॉड कहें या वाहे गुरू,
जिस किसी भी भाषा में जो नाम कहें, परमात्मा तो एक हैं ।
कृष्ण कहें, गोविन्द कहें, मोहन कहें, घनश्याम कहें,
मुरलीधर या माखनचोर कहें, वह तो सदा ही एक हैं ।

हिन्दू हों या मुस्लिम हों, सिख हों या फिर ईसाई,
आखिर सब इन्सान हैं, इस धरती के शैदाई ।
मजहब चहे जुदा – जुदा, धर्म सभी का एक है,
मनु कहें, ऐडम कहें, आदम कहें, पूर्वज सभी के एक हैं ।

चोगा धारण धर्म नहीं, ऊपर का दिखावा धर्म नहीं,
रीति निभाना धर्म नहीं, रिवाज का पालन धर्म नहीं ।
चंदन – टीका है धर्म नहीं, और दाढी बढाना धर्म नहीं,
मंदिर – मस्जिद का झगडा या बुरका – तलाक है धर्म नहीं ।

रेलिजन है धर्म नहीं, मजहब का माने धर्म नहीं,
जाति – समुदाय धर्म नहीं, और सम्प्रदाय भी धर्म नहीं ।
ये लोगों को लडवाते हैं, आपस में भेद कराते हैं,
ये दंगे भी करवाते हैं, इन्सां का लहू बहाते हैं ।

मंदिर – मस्जिद के झगडे मे इन्सानों को मरवाते हैं,
“जिहाद” के नाम पर “दहशतगर्दी”, “दंगा” ये करवाते हैं ।
जाति – पाति का भेद कराकर, छुआ – छूत निभाते हैं,
जाति – मजहब के नाम पे नाहक लोगों को लडवाते हैं ।

मानवता की सेवा में जीवन का अर्पण धर्म है,
निर्बलों की रक्षा और वृक्षों की सेवा धर्म है ।
अत्याचारी का विरोध सख्ती से करना धर्म है,
आत्म – रक्षा के लिये तलवार उठाना धर्म है ।

ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह का परित्याग धर्म है,
पूर्वाग्रह, पक्षपात का हरदम परित्याग धर्म है ।
भय, घृणा और अहंकार – इनका परित्याग धर्म है,
ये दस मानव दुर्गुण हैं, जिनका परित्याग धर्म है ।

परोपकार में धर्म छिपा, परपीडा हरना धर्म है,
अत्याचार नहीं करना और न्याय का पालन धर्म है ।
सत्य – अहिंसा धर्म है और जन – सेवा भी धर्म है,
प्यार – दया की भावना और स्व – अनुशासन धर्म है ।

उन्नति विज्ञान की और ज्ञान की वृद्धि धर्म है,
निरंतर शोध, विकास - कार्य, जन – चिकित्सा धर्म है ।
करना अर्थोपार्जन और जीवन का आनंद लेना धर्म है,
“सच्चे ब्राह्मण” को धन “दान” देना हर मानव का धर्म है ।

मातृ – सेवा धर्म है और पितृ – सेवा धर्म है,
भ्रातृ – सेवा धर्म है और बहन की रक्षा धर्म है ।
पति – सहयोग धर्म है, पत्नी – सहयोग धर्म है,
पुत्र – पालन धर्म है, पुत्री का पालन धर्म है ।

शान्ति – व्यवस्था धर्म है, समता – समरसता धर्म है,
मानवाधिकार की रक्षा धर्म है, नारी के सम्मान की रक्षा धर्म है ।
मानव – हृदय में प्रकृति की उंगली से लिखा जाता जो धर्म है,
अंतरात्मा की वाणी धर्म है, मानव मात्र एक हैं – यही धर्म का मर्म है ।

परमात्मा के प्रति हो श्रद्धा भावना, ईश्वर की भक्ति धर्म सदा,
अपना – परिजन का पालन – पोषण, जीवन रक्षा धर्म सदा ।
धर्म सत्य है इस धरा पर, इसके सिवा कुछ सत्य नहीं,
जो धर्म न पालन करता हो, वह पालन करता सत्य नहीं ।

हिंसक से लडना सही अहिंसा, हिंसा – अत्याचार सहन करना –
घनघोर है हिंसा, पाप मानें, हिंसा का प्रतिपोषण मानें ।
सबसे श्रेष्ठ वही ज्ञानी, जो धर्म विजय, निर्दोष की रक्षा, अथवा
न्याय, धर्म की रक्षा की खातिर, जो झूठ को सच से बेहतर माने ।

देश, काल, पात्र को रख ध्यान में, तर्क की कसौटी पर
खरा नहीं जो उतर सके, वह कदापि धर्म नहीं अधर्म है ।
ईश्वर पूजा की पद्धति, परिधान हो या कोई रीति – रिवाज,
देश, काल, पात्र के अनुरूप न हो, तो धर्म नहीं अधर्म है ।

देश, काल, पात्र को रखकर हमेशा ध्यान में,
करना कर्म उचित, सम्यक वचन, कर्त्तव्य पालन धर्म है ।
देश, काल, पात्र को रख ध्यान में, तर्क की कसौटी पर
खरा हमेशा जो उतरे, मान लें वह धर्म है ।
n     कृष्ण बल्लभ शर्मा “योगीराज”
(“इतिहास रचयिता” नामक पुस्तक से उद्धृत)

इन्सान की उलझन
ईश्वर कहूं, अल्लाह कहूं, गॉड कहूं या रब तुम्हें ?
खुद तुम ही बतला दो भगवन, राम कहूं या रहीम तुम्हें ?
कृष्ण भी तुम, गोविन्द भी तुम, मोहन तुम, घनश्याम भी तुम,
कह दूं तुमको माखनचोर, मुरलीधर क्या कहूं तुम्हें ?

मंदिर जाऊं, मस्जिद जाऊं, चर्च में या गुरुद्वारे में,
कहां पे तुझको ढूंढूं भगवन, काबा में या काशी में ?
सब कहते तुम एक हो, फिर नाम तुम्हारे इतने क्यों ?
कण – कण में तुम व्याप्त हो, तो फिर मंदिर क्यों और मस्जिद क्यों ?

मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारा, सब के सब (अ)गर तेरा घर तो,
मंदिर के नाम पे झगडा क्यों, मस्जिद के नाम पे दंगा क्यों ?
(अ)गर लडवाते हैं मंदिर – मस्जिद, मेल कराती मधुशाला,
तो मधुशाला में ही रह लेते, मंदिर – मस्जिद में रहते क्यों ?

तेरी सच्ची पूजा कौन–सी भगवन- मंदिर जा घंटा बजा तेरी मूर्ति की पूजा करूं ?
या खुली हवा में बैठ हवन कर, वेद मंत्र का जाप करूं ?
चर्च में जा संडे प्रेयर में भग लूं मैं, या जुम्मे को मस्जिद में जाके नमाज पढूं ?
या फिर, मानवता की सेवा को तेरी सच्ची सेवा मानूं, और प्यार दया का भाव धरूं ?

प्यार, दया, करूणा के सागर, अल्लाह मुझे अब तू ही बता,
पैगामे मुहब्बत भेजा तुमने, दहशतगर्दी कहां से आयी ?
निर्दोशों का खून बहाना, “जिहाद” है – किसने समझाया ?
क्रूर बना इन्सां कैसे, नफरत की आंधी कहां से आयी ?

दहशतगर्दी और जंगो – जदल, इस्लाम का मकसद कैसे बना ?
दहशतगर्दों की मौत शहादत – बात ये किसने समझायी ?
या खुदा मुझको बता, क्या नेकी का रस्ता यही है ?
कुरान में क्या लिखा यही, या बेहतर दूसरी कोइ किताब नहीं है ?




मंदिर
शक्ति का अवतार नारी
नारी तुम अबला नहीं हो, तुम कलह - कुशला नहीं हो,
सरस्वती लक्ष्मी स्वरूपा शक्ति का अवतार हो तुम ।

इस जगत की जननी तुम, संसार का आधार भी तुम,
पुरूष की प्रेरणा स्रोत हो तुम, प्रेम का भंडार भी तुम,
बडी सहन शक्ति तेरी, सुख शान्ति की स्रोतस्वती,
धैर्य तेरा है प्रबल, सद्धर्म की प्रतिमूर्ति हो तुम,
नारी तुम अबला नहीं हो, तुम कलह - कुशला नहीं हो,
सरस्वती लक्ष्मी स्वरूपा शक्ति का अवतार हो तुम ।

तुम अगर अबला बनी हो, अगर कलह - कुशला बनी हो,
दोष कुछ इसमें तेरा भी है, दोषी पुरूष समाज भी,
कोमल अंग भले तेरा, तू शक्ति की अवतारी है,
जो कुछ चाहा पाया तुमने, मौत भी तुमसे हारी है,
नारी तुम अबला नहीं हो, तुम कलह - कुशला नहीं हो,
सरस्वती लक्ष्मी स्वरूपा शक्ति का अवतार हो तुम ।

लोपामुद्रा नारी थी और रोमशा भी नारी थी,
गार्गी एक नारी थी और मैत्रेयी भी नारी थी,
सावित्री एक नारी थी और भारती देवी नारी थी,
जीजाबाई नारी ही थी, लक्ष्मीबाई नारी थी,
नारी तुम अबला नहीं हो, तुम कलह - कुशला नहीं हो,
सरस्वती लक्ष्मी स्वरूपा शक्ति का अवतार हो तुम ।

अलका भी एक नारी थी और जोन ऑफ आर्क नारी थी,
विक्टोरीया एक नारी थी और इंदिरा गांधी नारी थी,
सुभद्रा भी एक नारी थी और सरोजिनी भी नारी थी,
मदर टेरेसा नारी थी और कल्पना चावला नारी थी,
नारी तुम अबला नहीं हो, तुम कलह - कुशला नहीं हो,
सरस्वती लक्ष्मी स्वरूपा शक्ति का अवतार हो तुम ।

जो चाहो तुम कर सकती हो, जो चाहो तुम पा सकती हो,
कोई काम नहीं ऐसा जग में, तुम नहीं कभी कर सकती जो,
कुछ काम पडे हैं दुनिया में, जो कर सकती केवल तुम ही,
बारूद के ढेर पे बैठी दुनिया, तुम्ही इसे बचा सकती हो,
नारी तुम अबला नहीं हो, तुम कलह - कुशला नहीं हो,
सरस्वती लक्ष्मी स्वरूपा शक्ति का अवतार हो तुम ।

तुम चहो तो प्रेम की गंगा बहा दो आज की दुनिया में,
जो तुम चहो झगडे- झंझट का नाम मिटा दो दुनिया से,
पुरूष की प्रेरणा स्रोत बनकर, उसकी हिंसा रोक लो तुम,
प्रेम की शक्ति तुझमें है, वात्सल्य का भंडार हो तुम,
नारी तुम अबला नहीं हो, तुम कलह - कुशला नहीं हो,
सरस्वती लक्ष्मी स्वरूपा शक्ति का अवतार हो तुम ।
n     कृष्ण बल्लभ शर्मा “योगीराज”
(“इतिहास रचयिता” नामक पुस्तक से उद्धृत)

नर - नारी में श्रेष्ठ है कौन
नर - नारी में श्रेष्ठ है कौन ?
विवाद ही यह बेकार है,
दोनों एक – दूजे के पूरक हैं
और सृष्टी के आधार हैं ।

नई पीढी के वे पालनकर्ता
नवयुग के आधार हैं,
नर – नारी जब मिल जाते हैं
वे बनते जगताधार हैं ।

पुरुष के पौरूष का हरदम
सम्मान है करती हर नारी,
नारी के सम्मान की रक्षा
पुरुष नहीं तो कौन करेगा ?

वीर पुरुष हरदम करता
हर नारी का सम्मान है,
नारी के सम्मान की रक्षा
वीर पुरुष की शान है ।

जो सभ्य न होते कायर होते,
वे ही करते नारी का अपमान हैं,
नारी को वे हेय बताते
और दिखाते झूठी अपनी शान हैं ।

जो सभ्य न होते कायर होते,
नारी को वे शिक्षा का अधिकार न देते,
स्वतंत्रता उसकी छीन लेते,
घर से बाहर जाने का अधिकार न देते ।

जो सभ्य न होते कायर होते,
वे ही करते नारी पर अत्याचार हैं,
पर्दे के अंदर उसको रखते,
वे ही करते उसका बलात्कार हैं ।

पर सभ्यता जहां होती
और धर्म का पालन होता है,
नारी वहां शिक्षित होती
और जीवन सुखमय होता है ।

स्वतंत्र वहां नारी होती
वह पर्दे के बाहर होती,
पुरुषों के हर काम में
वह साथ बराबर का देती ।

विवाह कोई बिजनेस नहीं,
विवाह कोई कांट्रैक्ट नहीं,
बिजनेस और कांट्रैक्ट कभी
विवाह हो सकता नहीं ।

शारीरिक सम्बन्धों का
कांट्रैक्ट कभी विवाह नहीं,
और बच्चे पैदा करने का
एग्रीमेंट विवाह नहीं ।

स्त्री – पुरुष के मन – विचार,
दिल – दिमाग, शरीर और आत्मा,
स्थायी रूप से मिलते तो
खुश होता है परमात्मा ।

जीवन भर की खातिर जब वे
दोनों मिलकर एक हैं होते,
हर काम में एक – दूजे का हाथ बंटाते
एक – एक मिलकर दो नहीं ग्यारह होते ।

स्त्री – पुरुष का ऐसा पावन
मिलन धरा पर जब होता है,
सबकी खुशी का कारण बनता
विवाह की संज्ञा पाता है ।

विवाह, प्रेम, मित्रता
बराबरी की चीज है,
बराबरी में होती है
और परम आनंद का बीज है ।

विचारों – संस्कारों की समानता
आधार सदा इन नातों का,
धन – दौलत और स्वार्थ कभी
आधार नहीं इन रिश्तों का ।

धन – दौलत और स्वार्थ कभी
जो आधार बने इन रिश्तों का,
ऐसे रिश्ते हैं कभी टिकते नहीं
होता कोई भविष्य नहीं इन रिश्तों का ।

मालगाडी के डब्बे में
हीरा सोना भेजा है जाता नहीं,
राजधानी एक्सप्रेस ट्रेन में
मालगाडी का डब्बा है जुटता नहीं ।

पुरुष नारी से श्रेष्ठ नहीं,
नर से नारी हीन नहीं,
सरस्वती लक्ष्मी स्वरूपा
शक्ति का अवतार वही ।

पुरुष का पौरूष ही उसको
नारी से श्रेष्ठ बनाता है,
नारी का नारीत्व उसे
पुरुषों से श्रेष्ठ बनाता है ।

पुरुष का पौरूष बना रहे
और नारी का नारीत्व रहे,
दोनों का स्वाभिमान रहे
और दोनों का सम्मान रहे ।
n     कृष्ण बल्लभ शर्मा “योगीराज”
(“इतिहास रचयिता” नामक पुस्तक से उद्धृत)

जनतंत्र
जनतंत्र कहें या लोकतंत्र,
या फिर कह लें हम प्रजातंत्र,
यह शासन की वह पद्धति है,
जिसमें हर व्यक्ति होता है स्वतंत्र ।

अनुशासित जन जीवन होता,
अधिकार बराबर सबका होता है,
कर्त्तव्य का पालन सब करते
और जीवन सुखमय होता है ।

भय नहीं किसी का कभी किसी को,
सब निर्भय होकर जीते हैं,
स्वच्छंद विचरते हर प्राणी
और प्रेम का रस सब पीते हैं ।

जनतंत्र मे सरकार हरदम,
जनता के अनुसार ही चलती,
और जनमानस की भावना का
सम्मान सदा है वह करती ।

जनता का निर्णय ही हरदम
सरकार का निर्णय होता है,
जनता द्वारा, जनता की खातिर,
जनता का शासन होता है ।

जन जीवन बेहतर हो- इस खातिर
सरकार समर्पित होती है,
जनता के जीवन की, संपत्ति की,
मान और सम्मान की रक्षा होती है ।

न्याय मिले सबको – इस खातिर,
सरकार समर्पित होती है,
धर्म की रक्षा करने को
सरकार समर्पित होती है ।

जन समस्या का शीघ्र निवारण,
सरकार किया करती हरदम,
जन चिकित्सा, जन शिक्षा का प्रबन्ध
सरकार किया करती हरदम ।

कृषि कार्य को, पशु पालन को,
सरकार बढावा देती है,
वाणिज्य और व्यापार को
सरकार बढावा देती है ।

शान्ति व्यवस्था बनी रहे,
करती प्रबन्ध इसका सरकार,
आवागमन संचार की सुविधा,
का भी प्रबन्ध करती सरकार ।

सबसे काबिल और सर्वश्रेष्ठ,
सबसे काबिल सबसे महान,
है कौन जन – इसका निर्णय
करती जनता सबको पहचान ।

फिर शासन के संचालन का
अधिकार उसे सौंपा जाता,
जो सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण होता,
मंत्री पद उसको ही सौंपा जाता ।

न्यायाधीश के पद धारण का,
विधि नियमों के निर्धारण का,
और शासन के संचालन का,
अधिकार है होता ब्राह्मण का ।

चिकित्सक, शिक्षक, वैज्ञानिक का,
न्यायविद और शिक्षाविद का,
पद धारण ब्राह्मण करते है,
पद होता यह ब्राह्मण जन का ।

बुद्धिजीवी ब्राह्मण होता है सदा,
मानव समाज की सेवा करता है,
नीति, धर्म, नियम की व्याख्या करता,
विधि विधान बनाता है ।

राष्ट्र के अध्यक्ष या पद राजा का,
सर्वश्रेष्ठ क्षत्रिय को सौंपा जाता है,
राजपद के धारण का अधिकार,
क्षत्रिय का हरदम होता है ।

सेना में, पुलिस में, फौज में,
क्षत्रिय ही शामिल होता है,
वह जनता के जीवन की, सम्पत्ति की,
और देश की रक्षा करता है ।

पशुपालन, कृषि, वाणिज्य और व्यापार
करते जो वैश्य वही कहलाते हैं,
श्रमिक, सहायक, नौकर, अनुसेवक,
मजदूर जो होते शूद्र वही कहलाते हैं ।

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र –
है नाम सदा मानव गुणों का, वर्ण का,
जन्मगत जाति नहीं यह इंगित करता,
यह नाम सदा है वर्ग का या वर्ण का ।

ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, लोभ का,
अहंकार, भय, मोह, घृणा का,
पूर्वाग्रह का, पक्षपात का,
त्याग इन दस मानव दुर्गुण का –

यह प्रथम गुण लक्षण ब्राह्मण का,
और प्रथम गुण लक्षण क्षत्रिय का,
यह प्रथम गुण लक्षण वैश्य का
और प्रथम गुण लक्षण शुद्र का ।

सत्य अहिंसा धर्म का पालन
हर ब्राह्मण अपने जीवन में करता है ।
वह अत्याचार नहीं करता
और अत्याचार न सहता है ।

मानवता की सेवा में ब्राह्मण
जीवन का अर्पण करता है ।
वह धर्म की रक्षा की खातिर
परशु भी धारण करता है ।

क्षात्र धर्म को भूल क्षत्रिय जब
रक्षक होकर भक्षक बनके जीता है ।
तो अत्याचार के अन्त की खातिर ब्राह्मण
क्षत्रिय का संहार किया भी करता है ।

दोषी अपराधी को दंडित करने को
ब्राह्मण उग्र रूप धारण करता,
पर दोषी छोड किसी दूजे को
कभी नहीं वह दंडित करता ।

हिंसा अत्याचार सहन करना –
घनघोर है हिंसा, पाप वो माने,
हिंसक से लडना सही अहिंसा,
हिंसा के प्रतिकार की नीति वह जाने ।

सत्य, न्याय, धर्म की रक्षा की खातिर
वह झूठ को सच से बेहतर माने,
धर्म विजय, निर्दोष की रक्षा की खातिर
हर प्रकार के छल करना भी वह जाने ।

हर ब्राह्मण धन विद्या अर्जन करता है
और धन विद्या दान भी करता है,
वह स्व – अनुशासित रह्ता है
और न्याय का पालन करता है ।

मानव दुर्गुण को त्याग सदा जो
मानव सद्गुण धारण करता है,
सच्चा ब्राह्मण हरदम जग में
मात्र ऐसा व्यक्ति ही कहलाता है ।

क्षत्रिय निर्दोष की रक्षा करता है,
वह मौत से नहीं डरता है,
भयभीत कभी नहीं होता है,
वह हर मुश्किल से लडता है ।

पत्थर – सी होती मांसपेशियां,
फौलादी उसके सीने होते हैं,
लोहे – से होते हैं भुजदंड अभय
मजबूत इरादे हरदम होते हैं ।

नारी के सम्मान की रक्षा करता है,
और सदा कमजोर की रक्षा करता है,
देश और जनता की रक्षा की खातिर
क्षत्रिय जीवन का दांव लगाता है ।

हर क्षत्रिय आधा से ज्यादा ही
ब्राह्मण का गुण भी रखता भी रखता है,
हर क्षत्रिय अपने जीवन में
हर ब्राह्मण का आदर करता है ।

जग में सच्चे ब्राह्मण के साथ सदा
सच्चे क्षत्रिय भी आदर पाते हैं,
धरा पर सभ्य समाज रूपी शरीर के
ब्राह्मण मस्तिष्क क्षत्रिय भुजा कहलाते हैं ।

मृदुवाणी, वाक्चातुर्य, भावना शुभ लाभ की –
यह विशिष्ट है गुण लक्षण हर वैश्य का ।
कठिन परिश्रम, सबको आदर, सबकी सेवा –
यह विशिष्ट है गुण लक्षण हर शूद्र का ।

मानव के गुण और लक्षण ही जहां पर
पेशा का, व्यवसाय का आधार होता,
जनतंत्र वहीं पर होता है,
जीवन सुखमय सबका होता ।

जनतंत्र की गलत व्याख्या कर
जब अपराधी शासक बन जाते,
चोर, लुटेरे, तस्कर, अनपढ भी
विधायक, मंत्री, सांसद बन जाते ।

जाति मजहब की अग्नी सुलगाकर
राजनीति की रोटी जब सेंके जाते,
अत्याचारी, बलात्कारी, अन्यायी
भ्रष्ट जन, अपराधी हैं कानून बनाते ।

ब्राह्मण गुणों से हीन जन जब
न्यायाधीश- मंत्री पद का धारण करते हैं,
और क्षत्रिय गुणों से हीन जन
सेना में, पुलिस में शामिल होते हैं ।

तो ऐसी हालत में वहां पर
जनतंत्र बन जाता है भ्रष्टतंत्र,
अपराध पनपता है वहां,
स्थापित हो जाता अपराधतंत्र ।

वहां पर न्याय के ही नाम पर
अन्याय का नंगा नाच होता,
और शासन के नाम पर
कुशासन का विस्तार होता ।

धर्म के ही नाम पर वहां
अधर्म का व्यापार होता,
उग्रवाद पनपता है वहां
और आतंकवाद प्रश्रय पाता ।

क्राइम डेवलपमेन्ट कॉर्पोरेशन
सरकार चलाया करती है,
करप्शन प्रोमोशन कॉर्पोरेशन
सरकार चलाया करती है ।

नेतागण ताकतवर होते
फ्लेश ट्रेड के पैट्रन होते,
किड्नैपिंग इंडस्ट्री के वे
मैनेजिंग डाय्रेक्टर होते ।

तरह तरह का टैक्स चुकाती
जनता की होती है हालत खस्ता,
सरकारी टैक्स के अतिरिक्त उसे
रंगदारी टैक्स भी है देना पडता ।

बिन वर्दी के गुन्डा का साथ
वर्दी वाले गुन्डा देते,
और दोनों मिलकर जनता से
रंगदारी टैक्स लिया करते ।

विकास कार्य की राशि का
सरकारी तंत्र में बंदरबांट होता,
मंत्री, अफसर, बाबू से इंजीनीयर तक
सबको कमीशन बंट जाता ।

और फिर टैक्स देने वाली जनता
पानी बिजली को तरसती रहती,
कूडे – कचरे के दुर्गंध से बेहाल जनता
सडक पर गड्ढों से परेशान है रहती ।

अपराधियों के साये में वह
सदा है जीवन खॉफ से जीती ।
महिलाओं की इज्जत आबरू
सरे आम भी है लूटी जाती ।

आओ सब मिलकर सोंचें विचारें,
आज यह प्रण कर लें हम,
सच्चे धर्म और जनतंत्र की स्थापना
अब करके ही दम लेंगे हम ।
n     कृष्ण बल्लभ शर्मा “योगीराज”
(“इतिहास रचयिता” नामक पुस्तक से उद्धृत)

ओ मेरे प्यारे जीना सीख
ओ मेरे प्यारे जीना सीख,
आज के आज में रहना सीख ।

जो गुजर गया सो गुजर गया,
अब सोंच के उस पर होगा क्या ?
जो होना है सो होना है,
चिन्ता करने से होगा क्या ?
ओ मेरे प्यारे जीना सीख,
आज के आज में रहना सीख ।

जो मौत सभी की निश्चित है,
तो मौत से है फिर डरना क्या ?
(अ)गर लडे बिना हो जीना मुश्किल,
कदम – कदम पर लडना सीख ।
ओ मेरे प्यारे जीना सीख,
आज के आज में रहना सीख ।

हो कलम कभी कमजोर नहीं,
तलवार चलाना पर तू सीख,
गांधी की अहिंसा बनी रहे,
हिंसक प्राणी से लडना सीख ।
ओ मेरे प्यारे जीना सीख,
आज के आज में रहना सीख ।

जीवन फूलों की सेज नहीं,
मुश्किल के कांटे भरे पडे,
मुश्किल से उफ् तू करना नहीं,
हर मुश्किल से तू लडना सीख ।
ओ मेरे प्यारे जीना सीख,
आज के आज में रहना सीख ।

हों गम के बादल घेर खडे,
पर रोने से फिर होगा क्या ?
हां, हंसी तेरे गम छांटेगी,
हर हाल में अब तू हंसना सीख ।
ओ मेरे प्यारे जीना सीख,
आज के आज में रहना सीख ।
n     कृष्ण बल्लभ शर्मा “योगीराज”
(“इतिहास रचयिता” नामक पुस्तक से उद्धृत)

ओ वीर ! जरा साहस कर देखो
ओ वीर ! जरा साहस कर देखो,
आगे कदम बढा कर देखो ।
            दुख – दर्द हवा हो जायेंगे,
            गम के बादल छंट जायेंगे,
            सफलता चूमेगी कदम,
और शूल फूल बन जायेंगे ।
हाथ पर हाथ धर बैठे रहना कायरता है ।
साहस कर जो बढे न आगे, जीता जी भी मरता है ।

ओ वीर ! जरा साहस कर देखो,
आगे कदम बढा कर देखो ।
            पर्वत की चोटियां झुक जायेंगी,
राहों में फूल – कली बिछ जायेंगे,
सागर देगा राह तुम्हें,
और लोग देख हर्षायेंगे ।
सागर की असंख्य लहरों को देख तुम्हें न डरना है ।
सामना तो एक बार में एक लहर का ही करना है ।

ओ वीर ! जरा साहस कर देखो,
आगे कदम बढा कर देखो ।
            तरी खोल हिम्मत करोगे,
            राह खुद बन जायेगा,
सागर की छाती चीर बढो तुम,
मंजिल तुम्हें मिल जायेगा ।
चोट खाकर हिम्मत हार जाना मूर्खता है,
वीर हार में जीत रहस्य का ढूंढता है ।

ओ वीर ! जरा साहस कर देखो,
आगे कदम बढा कर देखो ।
            हार जीत बन जायेगी,
            बिछडे भी गले लगायेंगे,
            फतह जब मंजिल कर लोगे,
            आलोचक प्रशंसक बन जायेंगे ।
परम साहसी की सदा ही होती जय – जयकार है ।
पूजा जाता वह जग में, वह आदर का हकदार है ॥
n     कृष्ण बल्लभ शर्मा “योगीराज”
(“इतिहास रचयिता” नामक पुस्तक से उद्धृत)

सुन्दरता की देवी
तन सुन्दर है, मन सुन्दर है
तुम सुन्दरता की देवी हो,
मदमस्त तुम्हारी नजरें हैं
मदहोश हमें कर देती हो ।

है नूर टपकता चेहरे से
जुल्फों की शान निराली है,
मदमाता यौवन है तेरा
यौवन की शान निराली है ।

वाणी में है माधुर्य तेरे
तुम सुन्दर स्वर में गाती हो,
स्वर लहरी तेरी सुन्दर है,
मदहोश हमें कर जाती हो ।

है नशा तुम्हारी आंखों में
और होंठ छलकते प्याले है,
सुन्दर तेरी गोरी काया
और बाल घनेरे काले हैं ।

मुस्कान तुम्हारी खिली कली
और हंसो तो जैसे फूल झडे,
नागिन सी चाल तुम्हारी है
बिजली जैसे आंखों से गिरे ।

यौवन से दमकता चेहरा है,
गहना भी तेरा यौवन है;
शृंगार तुम्हारा क्या होगा ?
शृंगार तुम्हारा यौवन है ।

स्वभाव तेरा अति सुंदर है,
व्यवहार तुम्हारा सुंदर है,
सबसे घुल – मिल जाती हो तुम
व्यक्तित्व तुम्हारा सुंदर है ।

प्यार, दया, करूणा, वात्सल्य
धारण सब दिल मे करती हो,
निर्भीक हो तुम व्यवहार कुशल
तुम प्रेम सुधा बरसाती हो ।

आदर्शों के विपरीत कभी
तुम बात किसी की नहीं मानी,
हर मुश्किल से तुम टकरायी
जीवन में हार नहीं मानी ।

भयभीत कभी तू न होती हो,
तुम साहस की प्रतिमुर्ति हो,
बिजली – सी चमकती आंखें हैं
तुम मुझको राह दिखाती हो ।

है कोमल अंग भले तेरा
तू शक्ति की अवतारी है,
तु नहीं किसी से कभी डरी
हर मुश्किल तुमसे हारी है ।

तुम नये विचारों की मलिका
आदर्श पुराने हैं तेरे,
परिधान तुम्हारे नये मगर
संस्कार पुराने हैं तेरे ।

प्राचीन नवीन का संगम तुम
ईश्वर की अद्भुत रचना हो,
सोते और जागते मैं देखूं
तुम इतना सुंदर सपना हो ।

इस नये जमाने की शिक्षा
कालेज में जाकर तुम पायी,
पर, आदर्श पुराने भारत का
हो सदा निभाती तुम आई ।

तुम खुले विचारों की मलिका
तुम पर्दे से बाहर आई,
पाखंड नहीं कोई तेरे अंदर
ना तुम ढोंग निभा पाई ।

पर्दा जो मुगलों ने थोपा
उस पर्दे को तुम छोड चली,
मध्य युगों के रीति – रिवाज
और हर बंधन तुम तोड चली ।

मर्दों के पैरों की जूती
बनना तुमको स्वीकार नहीं,
और स्वाभिमान पर ठेस कभी
सहना तुमको स्वीकार नहीं ।

नारी है नर से हीन नहीं
और नर नारी से हीन नहीं,
तुम मानती हो यह सदा
कोई किसी से कम नहीं ।

है भूमिका दोनों की अलग
दोनों मे आग बराबर है,
जीवन रथ के दो पहिये हैं
दोनों पर भार बराबर है ।

सरस्वती लक्ष्मी स्वरूपा
शक्ति का अवतार हो तुम,
भारत का एक पुरूष हूं मैं
और भारत की एक नारी तुम ।

सम्मान तुम्हारा मैं करता
सम्मान हमारा तुम करती,
दोनों हैं पूरक एक दूजे के
बात सदा यह तुम कहती ।

अभिमान नहीं तुझमें है जरा
पर स्वाभिमान की मूर्ति तुम,
निज स्वार्थ के अंधे जो भी कहें
एक नारी का आदर्श हो तुम ।
n     कृष्ण बल्लभ शर्मा “योगीराज”
(“इतिहास रचयिता” नामक पुस्तक से उद्धृत)

प्रेम दर्शन
प्यार का एक छोटा – सा सागर हूं मैं,
अपने दिल मे हमें अब समा लीजिये ।
प्यार देता है आवाज अब आपको,
अपने दिल मे हमे अब जगह दीजिये ।
कृष्ण देता है आवाज अब आपको,
अपने दिल मे हमें अब जगह दीजिये ।

गीत लिखता हूं मैं, गीत गाता नहीं,
मेरे गीतों को होठों से छू लीजिये ।
मेरी नजरें भी हैं प्यार छलका रहीं,
अपनी आंखों मे हमको बसा लीजिये ।
अब तो व्यापार करता हूं मैं प्यार का,
प्यार के बदले में प्यार अब दीजिये ।

भाषा नफरत की हमने तो सीखी नहीं,
प्यार की भाषा में बात अब कीजिये ।
नफरत भी अगर आप हमसे करें,
प्यार स्वीकार मेरा तो कर लीजिये ।
छोड दें दुनियां नफरत की अब आप भी
प्यार की दुनिया मे अब सफर कीजिये ।

प्यार भगवान है, प्यार ही है खुदा,
मत जुदा प्यर से खुद को अब कीजिये ।
प्यार है जिन्दगी, प्यार है बन्दगी,
प्यार से दूर अब न रहा कीजिये ।
अपनी नजरों से बरसाता हूं प्यार मैं,
इस बारिष में खुद को भींगो लीजिये ।

प्यार है त्याग भी, यह समर्पण भी है,
बात है यह सही – मान अब लीजिये ।
प्यार है दिल की आवाज, अहसास है,
खुद ये अहसास महसूस कर लीजिये ।
पाक होता है रिश्ता सदा प्यार का,
प्यार की रीत को अब निभा दीजिये ।

प्यार पूजा भी है, प्यार भक्ति भी है,
प्यार शक्ति भी है – जान यह लीजिये ।
प्यार है ज्ञान भी, प्यार दर्शन भी है,
प्रेम दर्शन का अब ज्ञान ले लीजिये ।
ज्ञान होता अधूरा सदा प्यार बिन,
प्यार से ज्ञान को पूर्ण कर लीजिये ।

प्यार की रोशनी से है रौशन जहां,
अपने जीवन को रौशन तो कर लीजिये ।
प्यार की खुश्बू होती है हर फूल में,
इसको जीवन के आंगन मे भर लीजिये ।
प्यार देता खुशी और हंसाता भी है,
प्यार से अपने दामन को भर लीजिये ।

प्यार का तो कोई मोल होता नहीं,
प्यार अनमोल है जान यह लीजिये ।
प्यार बिकता नहीं इस जहां में कहीं,
इस हकीकत को अब जान भी लीजिये ।
जो भी बिक है रहा आज संसार में,
वो प्यार होता नहीं - जान यह लीजिये ।

प्यार करने कराने की वस्तु नहीं,
प्यार हो जाता है – जान यह लीजिये ।
है मिलन यह विचारों का, संस्कारों का,
इस मिलन को अमर अब बना दीजिये ।
प्यार डरता नहीं, प्यार मरता नहीं,
प्यार झुकता नहीं – जान यह लीजिये ।

प्यार के सामने अब तो नफरत कभी
टिक सकेगी नहीं जान यह लीजिये ।
प्यार के जो भी दुश्मन हैं – मिट जायेंगे,
बात निश्चित है - यह जान अब लीजिये ।
प्यार की जीत तो अब तो होगी सदा,
इसमें शक्ति बहुत - जान यह लीजिये ।

प्यार का एक छोटा – सा सागर हूं मैं,
अपने दिल मे हमें अब समा लीजिये ।
प्यार देता है आवाज अब आपको,
अपने दिल मे हमे अब जगह दीजिये ।
कृष्ण देता है आवाज अब आपको,
अपने दिल मे हमें अब जगह दीजिये ।
n     कृष्ण बल्लभ शर्मा “योगीराज”
(“इतिहास रचयिता” नामक पुस्तक से उद्धृत)

प्यार का सागर दिल मेरा
है प्यार का सागर दिल मेरा,
मैं प्यार की वर्षा करता हूं ।
है प्यार लबालब दिल में भरा,
मैं प्यार की बातें करता हूं ।
है प्यार का सागर दिल मेरा,
मैं प्यार की वर्षा करता हूं ।

दुश्मन अपना मानूं किसको ?
दुश्मन भी यहां तो अपने हैं,
मुझको जो दुश्मन माने कोई,
मैं प्यार उसे भी देता हूं ।
है प्यार का सागर दिल मेरा,
मैं प्यार की वर्षा करता हूं ।

नफरत की नहीं है जगह दिल में,
हां, प्यार की चाहत रहती है,
बस प्यार छलकता है दिल से,
और प्यार की लहरें उठती हैं ।
है प्यार का सागर दिल मेरा,
मैं प्यार की वर्षा करता हूं ।

सबकी कडवाहट खुद पीकर,
सबको निर्मल जल देता हूं,
ईर्ष्या नफरत सब झेल के भी मैं,
प्यार सभी को देता हूं ।
है प्यार का सागर दिल मेरा,
मैं प्यार की वर्षा करता हूं ।

जाति मजहब का भेद नहीं,
मैं भाषा की दीवार न मानूं,
देश की सीमा से आगे बढ,
प्यार की वर्षा करता हूं ।
है प्यार का सागर दिल मेरा,
मैं प्यार की वर्षा करता हूं ।

प्यार की वर्षा करते – करते,
प्यार का सागर सूख न जाये,
इस खातिर ही प्यार नदी का चाहिये,
हमें प्यार की चाहत रहती है ।
है प्यार का सागर दिल मेरा,
मैं प्यार की वर्षा करता हूं ।
n     कृष्ण बल्लभ शर्मा “योगीराज”
(“इतिहास रचयिता” नामक पुस्तक से उद्धृत)

अपना परिचय मैं क्या दूं
जो परिचय मेरा मुझसे पूछें,
उनको उत्तर मैं क्या दूं ?
जो पाते कहते लोग मुझे,
अपना परिचय मैं क्या दूं ?

कृष्ण हमारा नाम भले,
पर माखनचोर हूं कहलाया ;
छलिया लोगों ने नाम दिया,
और मैं रणछोड भी कहलाया ।

माखन चुराता, झूठ बोलता,
छल भी करता आया हूं ;
करने धर्म की स्थापना
मैं इस धरा पर आया हूं ।

धर्म सत्य है इस धरा पर,
इसके सिवा कुछ सत्य नहीं ;
जो धर्म न पालन करता हो,
वह पालन करता सत्य नहीं ।

धर्म विजय उद्देश्य हमारा,
धर्म की रक्षा मैं करता ;
न्याय का पालन धर्म समझ
निर्दोष की रक्षा मैं करता ।

धर्म विजय की ही खातिर
मैं झूठ बोलता आया हूं ;
और धर्म की रक्षा की खातिर
मैं छल भी करता आया हूं ।

योगी भी हूं, भोगी भी हूं,
सुंदरता का प्रेमी हूं ;
प्रेम पुजारी बनकर हरदम,
प्यार सबों से करता हूं ।

आवारा, पागल, दीवाना –
कुछ इतना सुंदर नाम मिला;
सनकी, बहरा, गूंगा बना,
पर नहीं किसी से हमें गिला ।

प्रेमी, रसिया, छलिया कहा,
योद्धा, लडाका कह दिया ;
जिसने जो पाया कह डाला,
हमने सब कुछ स्वीकार किया ।

मैं काम कला में बन प्रवीण,
इस जीवन का सुख भोग किया ;
और जीवन के हर क्षेत्र में
हर नारी का सम्मान किया ।

यूं तो जीवन में मैं कभी
किसी पर क्रोध नहीं करता ;
पर दोषी को दंडित करने को
मैं उग्र रूप धारण करता ।

गुनाह की माफी जो मांगें,
मैं माफ उन्हें कर देता हूं ।
पर चाल चले जो कोई अगर,
तो माफ न उनको करता हूं ।

एक भला बेचारा आदमी
मूर्ख और बेवकूफ भी कहलाया ;
देवता आदमी कहलाया
और पागल भी मै कहलाया ।

वाक्युद्ध लडा मैंने, और
कलम से लडता आया हूं ;
हथियार चलाना मैं सीखा
जीवन भर लडता आया हूं ।

जिसका भी स्वार्थ नहीं सधता,
वह मेरी शिकायत करता है ;
जिसकी भी बात नहीं मानूं,
वह मेरी निंदा करता है ।

व्यंग्य बाण सहा लोगों का,
अपना खुद उपहास सहा ;
नहीं शिकायत हमें किसी से,
कुछ नहीं किसी से कभी कहा ।

लोगों ने गाली हमें दिया,
रोडा भी हमपर बरसाया ;
कई वार हुए मेरे तन पर,
यह थी सब ईश्वर की माया ।

ईर्ष्या नफरत सब झेल के भी
मैं प्यार सबों को देता हूं,
कष्ट भले मैं खुद झेलूं,
लोगों का दुख हर लेता हूं ।

मौत के साये में पलकर
नन्हे बालक से हुआ जवान,
षड्यंत्रों के बीच पला पर
बनी रही है मेरी शान ।

अन्यायी अत्याचारी से लडा
अकेला कई लोगों से लडा,
आगे बढकर भी मैं लडा
और पीछे हटकर भी लडा ।

तन से, मन से, धन से हरदम
राक्षस से लडता मैं आया,
कई जंग भले जीते हमने
डरपोक और कायर कहलाया ।

धर्म नियम की व्याख्या कर
मैं गीता का उपदेश भी देता,
युद्ध की शिक्षा मैं देता
पर शांति का संदेश देता ।

न्यायविद और शिक्षाविद
की भी उपाधि मैं पाया,
कई लोगों ने कई नाम दिये
विद्वान कवि भी कहलाया ।

अध्यात्म की चर्चा मैंने की
अध्यात्म गुरू भी कहलाया,
योगी का जीवन मैं जीता
और योगीराज भी कहलाया ।

ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, लोभ को,
घृणा, मोह, भय, अहंकार को,
पूर्वाग्रह को, पक्षपात को,
त्यागा इन मानव दुर्गुणों को ।

व्याख्या कनून की करता, और
मानवाधिकार कि रक्षा करता हूं,
लोगों को न्याय मिले इस खातिर
हरदम न्यायालय में लडता हूं ।

कर्त्तव्य निभाने मैं आया
कर्त्तव्य निभाता जाउंगा,
जो चहें मुझको लोग कहें
अपना कर्त्तव्य निभाउंगा ।

मामूली – सा इन्सान हू मैं
इन्सान ही बनकर जीता हूं,
प्यार की वर्षा सबपर करता
प्रेम का रस मैं पीता हूं ।

तन- मन लचीला है मेरा
मैं सबकी बातें सुनता हूं,
पर करता केवल वही सदा
जिसको मैं उचित समझता हूं ।

इन्सानी आदर्शों की स्थापना
अपने जीवन से करता हूं,
जो चहता कि लोग करें
उनका पालन खुद करता हूं ।
n     कृष्ण बल्लभ शर्मा “योगीराज”
(“इतिहास रचयिता” नामक पुस्तक से उद्धृत)

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